25 अक्टूबर 2024 डॉ. नितिन राउत ने एक बार फिर ‘मनुस्मृति’ की प्रतिलिपि को जलाकर विरोध दर्ज किया

डॉ. बाबासाहेब अंबेडकर और उनके अनुयायियों ने 25 दिसंबर 1927 को किया ‘मनुस्मृति दहन’, आज भी जारी है शोषण और उत्पीड़न का सिलसिला

मनुस्मृति

 

नागपुर, 25 अक्टूबर 2024: 25 दिसंबर 1927 का दिन भारतीय इतिहास के पन्नों में एक ऐतिहासिक दिन के रूप में दर्ज है, जब डॉ. बाबासाहेब अंबेडकर और उनके अनुयायियों ने समाज में व्याप्त अत्याचार और जातिगत भेदभाव के खिलाफ प्रतीकात्मक विरोध स्वरूप ‘मनुस्मृति’ का दहन किया था। यह विरोध उस समय की वर्णव्यवस्था और मनुवादी मानसिकता के खिलाफ एक मुखर प्रतिक्रिया थी, जिसने सदियों से अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग (SC, ST, OBC) के लोगों पर अत्याचार किए।

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 संविधान जलाने की घटना और विरोध

हाल के वर्षों में, कुछ कट्टरपंथी तत्वों द्वारा संविधान को जलाने और उसके विरोध की घटनाएं बढ़ी हैं। यह घटनाएं एक ओर संविधान के मूल्यों और अधिकारों पर प्रहार करती हैं, तो दूसरी ओर सामाजिक समानता और न्याय की लड़ाई को कमजोर करती हैं। जो संविधान देश के हर नागरिक को समान अधिकार और अवसर प्रदान करता है, उसी का अपमान करना एक गंभीर मुद्दा बन गया है।

 

 डॉ. नितिन राउत का विरोध

25 अक्टूबर 2024 को, नागपुर के कन्वेंशन सेंटर में बैरिस्टर राजाभाऊ खोब्रागड़े की जयंती के अवसर पर एक ऐतिहासिक विरोध हुआ। इस अवसर पर, महाराष्ट्र के वरिष्ठ नेता और पूर्व ऊर्जा मंत्री और उत्तर नागपुर के आमदार डॉ. नितिन राउत ने एक बार फिर ‘मनुस्मृति’ की प्रतिलिपि को जलाकर विरोध दर्ज किया। यह कदम डॉ. अंबेडकर के ऐतिहासिक ‘मनुस्मृति दहन’ की याद को ताजा करने के साथ-साथ आज के सामाजिक हालात पर सवाल खड़ा करता है।

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डॉ. राउत ने अपने भाषण में कहा, “आज हम एक ऐसे समय में जी रहे हैं, जब मनुवादी ताकतें फिर से समाज में अपना वर्चस्व कायम करने की कोशिश कर रही हैं। यह संविधान का अपमान है। जो लोग संविधान को जलाने का प्रयास कर रहे हैं, वे हमारे पूर्वजों के बलिदानों और संघर्षों को नकार रहे हैं।”

 

 राजाभाऊ खोब्रागड़े: दलित अधिकारों के लिए समर्पित योद्धा

इस कार्यक्रम का आयोजन दलित अधिकारों के लिए संघर्षरत नेता बैरिस्टर राजाभाऊ खोब्रागड़े की जयंती के उपलक्ष्य में किया गया था। खोब्रागड़े, जो डॉ. अंबेडकर के करीबी सहयोगी और संविधान निर्माता समिति के सदस्य थे, ने जीवनभर दलित समाज के हक और सम्मान के लिए संघर्ष किया। उन्होंने हमेशा समानता, न्याय और मानवाधिकारों की बात की और सामाजिक व्यवस्था को बदलने के लिए कड़ा संघर्ष किया।

 

 डॉ. राउत का संदेश

डॉ. राउत ने इस अवसर पर सामाजिक न्याय और समानता के महत्व पर जोर दिया। उन्होंने कहा, “हमारे संविधान ने हमें एक न्यायपूर्ण और समतामूलक समाज का सपना दिया था। लेकिन आज भी कई हिस्सों में दलित और पिछड़े वर्गों के लोगों के साथ भेदभाव और अत्याचार होता है। यह समय है कि हम डॉ. अंबेडकर और खोब्रागड़े जैसे नेताओं की विचारधारा को मजबूत करें और संविधान की रक्षा के लिए एकजुट हों।”

उन्होंने यह भी कहा कि समाज में फैली हुई मनुवादी मानसिकता के खिलाफ आवाज उठाने की जरूरत है, ताकि एक समतामूलक और न्यायपूर्ण समाज का निर्माण हो सके। डॉ. राउत का यह विरोध केवल एक प्रतीकात्मक कदम नहीं था, बल्कि एक सशक्त संदेश था कि सामाजिक न्याय की लड़ाई अभी खत्म नहीं हुई है।

 

 सामाजिक बदलाव की जरूरत

डॉ. अंबेडकर के ‘मनुस्मृति दहन’ से लेकर आज तक के सफर को देखते हुए, यह स्पष्ट होता है कि समाज में बदलाव की प्रक्रिया धीमी रही है। जहां एक ओर संविधान ने हमें अधिकार दिए हैं, वहीं दूसरी ओर मानसिकता और पूर्वाग्रहों में बदलाव लाने की चुनौती आज भी बनी हुई है। सामाजिक और राजनीतिक ताकतें, जो जातिगत भेदभाव और मनुवादी विचारधारा को प्रोत्साहित करती हैं, अभी भी सक्रिय हैं।

यह घटनाएं बताती हैं कि डॉ. अंबेडकर द्वारा शुरू की गई लड़ाई आज भी प्रासंगिक है। दलित, आदिवासी और अन्य पिछड़ा वर्ग अभी भी उन चुनौतियों का सामना कर रहे हैं, जिनसे उन्हें मुक्ति दिलाने का सपना अंबेडकर ने देखा था।

 

25 दिसंबर 1927: एक ऐतिहासिक मोड़

1927 में, महाड़ सत्याग्रह के दौरान, डॉ. अंबेडकर ने यह स्पष्ट कर दिया था कि भारतीय समाज को जातिगत भेदभाव से मुक्त करना होगा। मनुस्मृति, जो हिंदू धर्मशास्त्रों में वर्णित सामाजिक नियमों का एक हिस्सा है, भारतीय समाज में जाति व्यवस्था को संस्थागत रूप से प्रबल बनाती थी। अंबेडकर ने इसे न केवल दलितों, बल्कि पूरे समाज के लिए अत्याचार का प्रतीक माना। इसलिए, उन्होंने 25 दिसंबर को मनुस्मृति को सार्वजनिक रूप से जलाने का साहसिक कदम उठाया, जो कि शोषित समुदायों के लिए एक नई उम्मीद की किरण साबित हुआ। इस विरोध के माध्यम से उन्होंने संविधानवाद और समता के विचार को समाज में आगे बढ़ाने की कोशिश की।

 आज भी जारी है शोषण

इस ऐतिहासिक घटना को लगभग 97 साल बीत चुके हैं, लेकिन क्या वास्तव में स्थिति में सुधार हुआ है? यह सवाल आज भी प्रासंगिक है। संविधान के लागू होने के बावजूद, आज भी देश के कई हिस्सों में दलितों, आदिवासियों और पिछड़े वर्गों के साथ अन्याय और भेदभाव की घटनाएं सामने आती रहती हैं। आज भी कई ‘मनुवादी’ विचारधाराएं समाज में गहराई से फैली हुई हैं, जो संविधान के आदर्शों का विरोध करती हैं और मनुवादी व्यवस्था को पुनः स्थापित करना चाहती हैं।

 

 भविष्य की दिशा

डॉ. नितिन राउत और अन्य दलित नेताओं द्वारा उठाए गए इस तरह के विरोध कदम यह स्पष्ट करते हैं कि आने वाले समय में सामाजिक न्याय के लिए संघर्ष और तेज होगा। जिस तरह से संविधान के आदर्शों का अपमान हो रहा है, उस पर तत्काल कदम उठाने की जरूरत है।

डॉ. अंबेडकर और खोब्रागड़े जैसे महापुरुषों की विचारधारा को मजबूत करने के लिए आज समाज के सभी वर्गों को एकजुट होना होगा। समाज में व्याप्त अन्याय और भेदभाव को मिटाने के लिए यह जरूरी है कि हम एकजुट होकर संविधान की रक्षा करें और उन मूल्यों को आगे बढ़ाएं, जिनके लिए हमारे पूर्वजों ने संघर्ष किया था।

 

 निष्कर्ष

डॉ. बाबासाहेब अंबेडकर द्वारा शुरू की गई ‘मनुस्मृति दहन’ की परंपरा आज भी जिंदा है, और यह दिखाता है कि समाज में सुधार की जरूरत अभी भी बाकी है। डॉ. नितिन राउत द्वारा मनुस्मृति जलाने का यह प्रतीकात्मक कदम न केवल अतीत के संघर्षों की याद दिलाता है, बल्कि यह भी बताता है कि जातिगत भेदभाव और सामाजिक अन्याय के खिलाफ लड़ाई अभी खत्म नहीं हुई है।

आज जब कुछ कट्टरपंथी तत्व संविधान के खिलाफ आवाज उठा रहे हैं, तब यह जरूरी हो जाता है कि हम संविधान और सामाजिक न्याय के मूल्यों की रक्षा करें। यह समय है कि हम सभी एकजुट होकर समाज में व्याप्त अन्याय और भेदभाव के खिलाफ खड़े हों और एक समतामूलक और न्यायपूर्ण भारत का निर्माण करें।

लेख : प्राजक्त